सम्राट मिहिरभोज संपूर्ण इतिहास ही जाति, राजवंश, जीवनी
गुर्जर प्रतिहार वंश के महान सम्राट मिहिरभोज का जन्म 816 ईस्वी में हुआ था। यह सम्राट रामभद्र और महारानी अप्पादेवी के पुत्र थे। शिलालेखों में सम्राट मिहिरभोज के अनेकों नाम वर्णित है। दौलतपुर अभिलेख में इनका नाम प्रभाष और महाराजा भोजदेव उल्लिखित है अथवा ग्वालियर शिलालेख में इनका नाम श्रीमद आदिवराह और परमेश्वर श्री भोजदेव उल्लिखित है।
सम्राट मिहिर भोज संपूर्ण इतिहास - Mihir Bhoj History in Hindi
सागरतल प्रशस्ति में इन्हें मिहिर लिखा है। इतिहासकारों के अनुसार यह मिहिर शब्द इनकी उपाधि थी। सम्राट मिहिरभोज के किसी भी शिलालेख से इनके धर्म का पता नहीं चलता, परंतु ग्वालियर शिलालेख में उल्लिखित आदिवराह नाम को भगवान विष्णु के वराह अवतार से जोड़ा जाता है।
इसके अलावा शिलालेखों में मिहिर शब्द से इनके सूर्य उपासक होने का भी बोध होता है। केवल सम्राट मिहिरभोज ही नहीं अपितु सम्पूर्ण गुर्जर वंश सूर्य उपासक था। इन्होंने 835 ईस्वी से लेकर 884 ईस्वी तक उत्तर भारत पर शासन किया। इतिहासकारों के अनुसार इन्हें मध्यकालीन भारत का सबसे महान सम्राट माना जाता है।
इसका कारण इनके द्वारा कभी न झुकने वाले अपराजित अरबों की आँधी को भारत में विध्वंश मचाने से रोकना और सनातन धर्म को संरक्षित करने हेतु अनेकों शैव तथा वैष्णव मंदिरों का निर्माण कराया जाना है।
सम्राट मिहिर भोज की उपलब्धियां व शासन काल
सम्राट मिहिरभोज ने राजधानी कन्नौज से अपने राज जीवन का आरंभ किया। इनके पिता सम्राट रामभद्र गुर्जर प्रतिहार वंश के सबसे अयोग्य शासक थे। जिनके राज्यकाल को इस वंश का सबसे बुरा काल माना जाता है।
इस समय गुर्जर प्रतिहार वंश अपना सम्मान और राज्य क्षेत्र दोनों खोता जा रहा था। परंतु सम्राट मिहिरभोज के द्वारा गुर्जर प्रतिहार वंश की डोर अपने हाथों में सम्भालने से इस वंश ने अपना खोया हुआ सम्मान और राज्यक्षेत्र दोनों पुनः प्राप्त किया।
सम्राट मिहिरभोज के शासन काल में गुर्जरात्रा की राजधानी कन्नौज थी और गुर्जरात्रा की सीमाएं मुल्तान से पश्चिम बंगाल में गुर्जरपुर तक और कश्मीर से कर्नाटक तक फैल गयी थी। अरब यात्री सुलेमान सम्राट मिहिरभोज के समय भारत यात्रा पर आया था। उसने गुर्जर शब्द को मौखिक रूप में जुर्ज उच्चारण किया है। उसने सम्राट मिहिरभोज के शासन और सेना की प्रशंसा की है।
एक अन्य अरब यात्री अलमसूदी जो अपनी सिंध की यात्रा के दौरान लिखा है कि अरबों ने सम्राट मिहिरभोज से अपने बचाव हेतु मुल्तान में एक सूर्य मन्दिर नहीं तोड़ा है। 10 वी शताब्दी के हुदुल उल आलम से यह जानकारी प्राप्त होती है कि इस समय गुर्जर प्रतिहार वंश के पास 1,50,000 घुड़सवार सेना और 800 हाथियों की सेना है। उत्तर भारत के अन्य अधिकतर राजा इस वंश के सामंत है।
मिहिर भोज का ग्वालियर अभिलेख
सम्राट मिहिरभोज के पिता सम्राट रामभद्र के शासन काल में बुंदेलखण्ड गुर्जर प्रतिहारो के हाथ से निकल गया था। परन्तु ग्वालियर अभिलेख से पता चलता है कि बुन्देलखण्ड पर सम्राट मिहिरभोज़ ने पुनः अधिकार कर लिया था। क्योंकि इस अभिलेख में कहा गया है कि कालंजर मंडल (बुंदेलखण्ड) में सम्राट मिहिरभोज ने दान को पुनः सक्रिय किया था। यह कथन उपरोक्त क्षेत्र पर भोज के अधिकार की पुष्टि करता है।
दौलतपुर अभिलेख
दौलतपुर अभिलेख से पता चलता है कि गुर्जरत्रा भूमि (वर्तमान राजपूताना) में सम्राट वत्सराज व सम्राट नागभट्ट द्वारा दान दिया गया था। परन्तु सम्राट रामभद्र के शासनकाल में वह दान समाप्त हो गया था। परन्तु 843 ई. में इस क्षेत्र में मिहिरभोज द्वारा पुनः दान का उल्लेख किया गया है। जिससे स्पष्ट होता है कि इस क्षेत्र पर भी मिहिरभोज ने पुनः अधिकार कर लिया था तथा वहां चाहमान वंश के लोग गुर्जर-प्रतिहारों के सामन्त के रूप में कार्य कर रहे थे।
चाट अभिलेख
चाट अभिलेख के अनुसार पता चलता है कि गुहिल शासक हर्षराज ने उत्तर के राज्यों पर विजय प्राप्त कर मिहिरभोज को घोड़े भेंट किये थे। डा. भण्डारकर का कहना है कि हर्षराज मिहिरभोज का सामन्त था। चाहमान, गोहिल वंश के अतिरिक्त चेदी और कलचुरी वंश भी सम्राट मिहिरभोज के सामंत थे। सम्राट रामभद्र के शासन काल में जितने भी वंशों ने स्वयं को स्वतन्त्र घोषित किया था। वे सम्राट मिहिरभोज ने उन्हें वापिस गुर्जर प्रतिहारो के सामंत बना दिया था।
मिहिर भोज का समय था भारत का स्वर्ण काल
सम्राट मिहिरभोज के शासन काल को गुर्जर प्रतिहार वंश का ही नहीं अपितु सम्पूर्ण उत्तर भारत का स्वर्ण काल माना जाना गलत नहीं होगा। क्योंकि इस काल में काव्य, कला, संगीत और मंदिर निर्माण आदि के कार्यो को अत्यधिक बढ़ावा मिला।
इसके अतिरिक्त त्रिपक्षीय युद्ध करके पाल और राष्ट्रकूटो से उत्तरी, पूर्वी और अरबों से अपनी पश्चिमी सीमाओं की रक्षा करी। गुर्जर वंश द्वारा अरबों को सिंध में ही रोकने के कारण सम्पूर्ण सनातन भूमि अरबों के विध्वंस से सुरक्षित रहीं।
सम्राट मिहिरभोज की जाति गुर्जर या राजपूत ?
गुर्जर प्रतिहार वंश की उत्पति इतिहासकारों ने अपने-अपने विचारों व अध्ययन के अनुसार बताई है। कुछ इतिहासकार इस वंश को गुर्जर ही मानते है। परंतु इतिहासकारों का एक छोटा तमगा इस वंश को राजपूत मानता है।
गुर्जर प्रतिहार वंश को राजपूत मानने वाले इतिहासकार दशरथ शर्मा, चिंतामण विनायक वैद्यय है। दशरथ शर्मा का मानना है कि गुर्जर प्रतिहार वंश में गुर्जर शब्द एक देश को दर्शाता है। जिस पर प्रतिहार वंश राज करता था। वही
चिंतामण विनायक वैद्यय भी इसी मत का समर्थन करते है। इनके अनुसार प्रतिहार, परमार, चालूक्या और चौहान यह सभी वंश क्षत्रिय है। इन्होंने यह भी स्वीकार किया कि इन सभी वंशों ने अपने आप को कभी राजपूत नहीं कहा और लिखा है।
लेकिन यह सभी वंश क्षत्रिय है। इन्होंने अग्निकुण्ड से उत्पन होने वाले मत को खारिज किया है। परंतु ये पौराणिक कथाओं के आधार पर और राजपूतों की परम्पराओं व वर्तमान स्थिति के अनुसार राजपूतों को सूर्यवंशी और चंद्रवंशी मानकर पौराणिक क्षत्रियों से जोड़ने का प्रयत्न करते है। वही दूसरी तरफ उन्होंने गुर्जरों की वर्तमान पशुपालक की स्थिति के बारे में बताया है और गुर्जरों को भी शुद्ध आर्य माना है।
सम्राट मिहिर भोज को गुर्जर जाति का मानने वाले इतिहासकारो के नाम
गुर्जर प्रतिहार वंश को गुर्जर जाति का मानने वाले इतिहासकारों में डॉ बैजनाथपूरी, विंसेंट स्मिथ, जेम्स एम कैम्पबैल, डी. सी. गांगुली, रामशरण शर्मा, डॉ. रमा शंकर त्रिपाठी, वी. बी. मिश्रा, रमेश चंद्र मजुमदार, ए.म.टी. जैकसनरुडोल्फ होइरनेल आदि है। यह सभी इतिहासकार गुर्जर प्रतिहार वंश को पूर्ण रूप से गुर्जर मानते है। इनमे से कुछ गुर्जर जाति को विदेशी मूल का मानते है, तो कुछ देशी मूल का आर्य मानते है।
डॉ बैजनाथपूरी द्वारा गुर्जरों के भारतीय मूल का सुझाव देने की दृष्टि से पूरे साक्ष्य-पुरालेख, साहित्यिक, विदेशी, नृवंशविज्ञान और भाषाई बिंदुओं को ध्यान में रखा गया है। उन्होंने राजौरगढ़ शिलालेख के अनुसार उस समय के गुर्जर जाति के किसानों के बारे में भी बताया है।
रमा शंकर त्रिपाठी, वी. बी. मिश्रा, रमेश चंद्र मजुमदार के अतिरिक्त इतिहासकार गुर्जर प्रतिहार वंश को हूणों से जोड़ते है। उनके अनुसार गुर्जर प्रतिहार वंश का हूणों के आक्रमण से पूर्व कोई निशान नहीं मिलता। यह गुर्जर लोग हूणों के साथ वर्तमान भारत में आए और समय के साथ-साथ यही की परम्पराओं एवं संस्कृति को अपना लिया।
गुर्जर प्रतिहार राजवंश एवं मिहिर भोज को गुर्जर जाति का सिद्ध करने वाले अभिलेख
गर्जर प्रतिहारों के गुर्जर जाति का होने के समर्थक अभिलेख और शिलालेख।
- पुलकेशीन द्वितीय के एहोल अभिलेख में सर्वप्रथम गुर्जर जाति का अस्तित्व मिलता है।
- अमोघवर्ष का 871 ई. का संजन ताम्र पत्र
- सिरूट शिलालेख
- कर्कराज का बड़ौदा ताम्रपत्र (811-812 ई.) ·
- चंदेल धंग का 954 ई. का खजुराहो शिलालेख
- चेदी राजा कर्ण का गोहरवा अभिलेख
- राजा मंथनदेव का 960 ई. का राजीरगढ़
- नीलगुण्ड, राधनपुर, देवली तथा करहाड़ के शिलालेखों में गुर्जर प्रतिहार वंश को गुर्जर जाति का स्पष्ट रूप से लिखा हुआ है।
सम्राट मिहिर भोज विवाद
हाल ही में सम्राट मिहिर भोज पर उनकी जाति को लेकर विवाद चल रहा है। गुर्जर और राजपूत समाज दोनों उनकी जाति पर दावा कर रहे हैं। जबकि ज्यादातर इतिहासकारों का मत यह है कि मिहिर भोज गुर्जर जाति से थे और गुर्जरों को विशुद्ध आर्य भी कहते हैं।
जबकि दशरथ शर्मा और उनकी बेटी ही बस ऐसे इतिहासकार रहे हैं, जिन्होंने उन्हें राजपूत जाति से बताया है। परंतु आप अगर सत्य जानना चाहते हैं, तो स्वयं इतिहास का अध्ययन करें, बताए गए शिलालेख, अभिलेख व ताम्रपत्रों को पढ़ें। किसी दूसरे व्यक्ति के विचारों को मानने से अच्छा होता है, स्वयं पढ़कर जान लेना।